कुछ ऐसे बिखरना चाहती हूँ।
जब तय ही हो गया कि ज़िन्दगी बिखरनी है
बिखर कर चरम पर फिर संवरना चाहती हूँ।
मेरी हर पीड़ा, हर आंसू, मेंरे स्वप्न,मेरी उम्मीदें
बिखरकर जिस धरा पर जा ये गिरे
उसे उर्वर बना तब स्वयं अन्नमय बीज हों।
मैंने तो स्वीकार ली हर हार अपनी जिन्दगी में
पर मेरी ये हार किसी की राह की तो जीत हो।
जब स्वयं में कुछ भी न बाकी बचा
तो ये उपागम अन्य के ही काम आए।
बसर होती इस बेवजह सी जिन्दगी से
रोशन कुछ बुझते चिराग हो जाएं।
सुकून मिलेगा मुझे सोचकर यही अब तो
मेरी इस जिन्दगी का कुछ तो सही हासिल है।
भले ही मेरा घर इस रोशनी से भर न पाया
मगर कुछ तो चिराग इस रोशनी के दम से हों।