कुछ मुक्तक…
महज दे ज्ञान पुस्तक का, नहीं पढ़ना सिखाते हैं।
सहारा बन हमारा ये, हमें बढ़ना सिखाते हैं।
हमारे मार्गदर्शक ये, सुझाते हैं सुपथ हमको,
कहाँ है क्या हमें करना , गुरू हमको सिखाते हैं।
सँभालो डूबती नैया, बनो पतवार हिंदी की।
बजे जब पाँव पैजनियाँ, सुनो झंकार हिंदी की।
अरे पिछलग्गुओं चेतो, न बेचो मान अपना तुम,
बहुत कर ली गुलामी अब, सुनो ललकार हिंदी की।३।
तजो आलस तजो निद्रा, रखो मन भावमय चेतन।
न हो अपव्यय ताकत का, रहो मत तात यूँ उन्मन।
मिला दुर्लभ तुम्हें नर तन, चला जाए अकारथ क्यों,
भजो श्रीकृष्ण बनवारी, जपो राधे-यशोनंदन।
हमें है आन झंडे की, इसे ऊँचा उठाएंगे।
बनेंगे आत्मनिर्भर हम, सभी के काम आएंगे।
हमारी संस्कृति क्या है, बताएँगे जमाने को,
कुटुंबी सब धरा वासी, अलख जग में जगाएंगे।
बनें सब आत्मनिर्भर तो, नहीं कोई कमी होगी।
न होंगे होंठ ये सूखे, न आँखों में नमी होगी।
भरे जब पेट सब होंगे, न सूझेंगी खुरापातें,
हुलसता आसमां होगा, थिरकती ये जमीं होगी।
निकलती तीव्र गति से तू, कटे चालान तेरा भी।
सँभल कुछ जिंदगी अब तो, निकट अवसान तेरा भी।
भला ये हड़बड़ी कैसी, जरा तो साँस ले थमकर,
कभी मिल बैठ अपनों में, बढ़े कुछ मान तेरा भी।
सुनो सबकी करो मन की, गुनो लेकिन प्रथम मन में।
सफलता-सूत्र का बाना, बुनो लेकिन प्रथम मन में।
नियत मंजिल करो अपनी, रखो तब ही कदम आगे,
कमाना क्या गँवाना क्या, चुनो लेकिन प्रथम मन में।
हुनर मेरा कभी मुझसे, नहीं वो छीन पाएँगे।
गुँथे मन-भाव में मुक्तक, कहाँ तक बीन पाएँगे।
नहीं वो ताव आएगा, न संगत बैठ पाएगी,
लुटेरे चोर महफिल में, खुदी को दीन पाएँगे।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद