कुछ बर्फीली यादे –आर के रस्तोगी
पोष माह की बर्फीली अँधेरी रात थी
प्रियतम से होने वाली मुलाक़ात थी
रुक-रुक कर बारिश हो रही थी
हर तरफ बर्फ जमा हो रही थी
मुझे तो ऐसा आभाष हो रहा था
जैसे कोई बर्फीले तीर चुभो रहा था
पेड़ पत्ते सफेद चादर ओढ़े खड़े थे
पशु-पक्षी भी नीचे अधमरे पड़े थे
नदी झरनों की गति रुकी पड़ी थी
झील अपने आप में जमी पड़ी थी
मुझे तो ऐसा आभाष वहाँ हो रहा था
जैसे कोई सफेद चादर ओढे सो रहा था
सडके समतल बाज़ार सूनसान थे
कुछ राही उनके केवल मेहमान थे
वाहन सभी एक लाईन में खड़े थे
जैसे रेल के डिब्बे एक साथ जुड़े थे
मुझे तो ऐसा आभाष हो रहा था
जैसे कोई मुझे आवाज दे रहा था
बर्फीली हवायें ऐसी चल रही थी
जैसे आपस में मजाक कर रही हो
यात्री एक दूजे पर बर्फ फैक रहे थे
मानो वे बालीबाल ही खेल रहे हो
मुझे तो ऐसा आभाष हो रहा था
जैसे मेरा प्रीतम मुझसे खेल रहा था
मैं यूहीं बर्फीली रात में तड़फती रही
अपने प्रियतम की प्रतीक्षा करती रही
इस बर्फीले मौसम में वह आ न सका
इस विरहणी की आग को बुझा न सका
मुझे तो ऐसा आभाष वहां हो रहा था
जैसे मेरा अंतिम संस्कार हो रहा था
आर के रस्तोगी