कुछ तो तुम भी बदल गयी बरसात
अब तो बरसात भी हो गयी
पेड़ों को नया जीवन भी मिल गया
और धरती को तपिश से राहत भी मिल गयी
लोगों ने भी चैन की साँस ले ली …
पर फिर भी कसक रह गयी
क्या ये पुरानी बरसातों जैसी बरसात नहीं
या फिर हम ही नए ज़माने के हो गए ,
अब बरसात में हम अम्मा के हाथ की
पकौड़ी खाने की ज़िद नहीं करते ,
अब बरसात में हम मित्रों के साथ
जंक फ़ूड खाने चल देते हैं ,
वो घर की बनी चाय भी फीकी फीकी सी लगने लगी ….,
याद आया की –
पहले एक बड़ा सा आंगन होता था
उसमे लगे पेड़ में हम झूले डाल लिया करते थे
फिर रिमझिम बरसती बूंदों में
ऊँची ऊँची पेंगे मारा करते थे
अब न तो वो खुले आंगन का स्वरुप वही रहा
न वो झूले रहे
न हमारा ध्यान अब अम्मा के व्यंजनों पे रहा ,
लेकिन कुछ तो तुम भी बदल गयी बरसात
तुम भी तो हमें दिल की गहराइयों तक छू के नहीं जाती ,
अब तुम हमें मनमीत की याद तो दिला जाती हो
लेकिन क्यों नहीं झिंझोड़ जाती की दिल एक बार उनका भी ख्याल कर ले – जिनकी ऊँगली पकड़ के हम बरसात की गीली मिट्टी पर चले हैं
जिन्होंने हमको सिखाया की ये सिर्फ़ बारिश का पानी नहीं
जीवनदायक अमृत है ,
सुनो न बरखा – तुम भी बरसो न झकझोर के
हम भी वही बच्चे बन जाते है
हम फिर से माँ – पापा की गोदी में बैठ जाते हैं
हम फिर से माँ – पापा की गोदी में बैठ जाते हैं |
द्वारा – नेहा ‘ आज़ाद ‘