कुछ खत मुहब्बत के
मै कहां कभी उनकी यादों में हूँ
फिर ‘खत मुहब्बत का’ देकर ही कैसे आता
वो रानी जिस सतरंज की थी,
मै महज पयादो में हूँ।
उन लिफ़ाफ़ों की तरह, दिल- ए- जुबा भी बंद ही रहा
मै करता रहा हौर लिखने की ‘खत मुहब्बत का’
जिसका अधूरा हर छंद रहा
वजह तो बस यही थी ना, तु मेरी मुहब्बत और मै महज एक तेरा पसंद रहा
शायद स्याही फीका सा पड़ता
अरमानो का भी मन नहीं भरता
जो तु भी पढ़ती ‘खत मुहब्बत का’ मेरा
तो होश तेरा महज कागज ही कहता।
फुर्सत ले, क्षण यादों संग बिताया
खोया सा था कुछ, बेपता सा है कुछ
बेहद खुश हूँ, वो खत मुहब्बत वाला
आज भी अपने ही सिरहाने पाया।