उधार और मानवीयता पर स्वानुभव से कुछ बात, जज्बात / DR. MUSAFIR BAITHA
2011 की बात है। फेसबुक पर बिहार सरकार/कार्यालय विरोधी पोस्ट डालने के आरोप में मुझे सस्पेंड/निलंबित कर दिया गया था।
शायद, किसी सरकारी कर्मचारी को फेसबुक पोस्ट के आधार पर नौकरी से निलंबित किये जाने का भारत ही नहीं, दुनिया में सबसे पहला मामला था। फेसबुक को पॉपुलर हुए भी कोई दो साल ही हुए थे।
कहानी तो मेरे इस निलंबन की कई चली थी। बीबीसी ने खबर चलाई थी। दो न्यूज चैनल ने मेरा इंटरव्यू जैसा लेना चाहा था, एक तो मेरे घर के स्टडी रूप और कम्प्यूटर पर फेसबुक खुलवाकर वीडियो बनवा कर भी ले गया था। तो न्यूज़ चैनल ने पटना के मशहूर इको पार्क (राजधानी वाटिका) में चहलकदमी करवाते हुए वीडियो बनवाई थी। मगर, मैंने इन सबसे मामले को और हवा देने वाली कोई बात नहीं की उनसे। दो चैनलों ने तो live बहस भी इस निलंबन पर चला दी जिसमें से एक ने मुझे भी बहस में हिस्सा लेने का न्योता दिया। कहा कि बहस में हिस्सा लेने में असुविधा महसूस कर रहे हैं तो स्टूडियो के दर्शक का ही हिस्सा बन जाइये। मैंने मना कर दिया कि यह तो एक तरह से तमाशा बनना ही हो जाएगा।
एक अख़बार के स्थानीय ‘i next’ नामक ‘बच्चा’ एडीशन ने मेरी तस्वीर के साथ लीड स्टोरी बनाई थी – “मुसाफ़िर जाएगा कहाँ?”
एक किताब भी मेरे और दो अन्य लोगों के ‘वीर बालकत्व’ पर लिख डाली गयी!
बावज़ूद इस सब के निलंबन अच्छी अवधि तक चली।
इस निलंबन के बाद तो ऑफिस के मित्रवत संबंध वाले कार्यालय साथी तक मुझसे आँखें चुराने लगे, मिलने से कतराने लगे, रास्ता बदलने लगे, बोलना बतियाना छोड़ दिया, कि मेरे साथ देखे जाने से कार्यालय की, ‘व्यवस्था’ की नज़र में कहीं वे भी न आ जाएं!
बहरहाल, इस पोस्ट के अपने मूल लक्ष्य पर आता हूँ। मैंने अपनी एक fb पोस्ट में उधार देने की परेशानी पर बात की थी।
मेरे निलंबन के आड़े वक़्त में मेरे साथ एक कमरे में बैठकर काम करने वालों में से किसी ने आर्थिक सहायता (उधार के रूप में) देने का ऑफर न किया। साथियों में जबकि सवर्ण के अलावा बहुजन भी थे।
कार्यालय से सस्पेंशन पीरियड में छहेक महीनों तक वेतन न मिला, जबकि तुरंत से पारिवारिक जीवनयापन हेतु मूल वेतन देना होता है।
जब मैंने लिखित आवेदन–निवेदन किया तब बाद में निलंबन अवधि तक यह आधा वेतन मिला जो घर की सारी जरूरतों के लिए नाकाफ़ी था।
उधर, एक सवर्ण सहकर्मी की बेटी जब गंभीर रूप से बीमार पड़ी थी तो एक बामन सहकर्मी ने पहल कर आपस में चंदा किया था, मैंने भी इसमें सहयोग किया था। मेरे मामले में किसी ने यह पहल न ली थी।
भले ही मुझे अपने कार्यालय साथियों से आर्थिक सहायता न मिली तो मगर, एक जगह से अप्रत्याशित मदद मिली। लिखने पढ़ने के मेल से एक युवक से दोस्ती हुई थी। वह तबतक झारखंड प्रशासनिक सेवा में आ गया था और ब्लॉक डेवलपमेंट ऑफिसर था। इस परीक्षा की तैयारी के समय भी वह पटना में आकर दो बार मिला था, कि आप अपने अनुभव से टिप्स दें। बड़े भाई का आशीर्वाद टाइप की चीज़ भी उसे चाहिए थी!
उस मित्र का यहाँ नाम न लूँगा क्योंकि बिना उसकी अनुमति से नाम जाहिर करना सही नहीं रहेगा।
उसने उस वक्त 25 हजार रुपए मदद करने की बात की, कि एक छोटे भाई की ओर से मैं यह छोटी सी रकम रख लूँ। छोटी सी रकम उनके ही शब्द हैं। सन 2011 की बात है यह। तब तो उसे वेतन ही लगभग इतना ही मिलता रहा होगा। कहना न होगा कि तो सहायता की बड़ी राशि थी।
मैंने मदद पाने की शर्त रखी, कि एक ही शर्त पर पैसे लूँगा, जब आप वापस भी लेंगे। जब मुझे पैसे होंगे, यानी अपनी सुविधा के अनुसार पैसे लौटा दूँगा।
शत्रु की न सही, दुःख में, गाढ़े वक्त में मित्र और निकटस्थ अन्यमनस्क लोगों की पहचान तो हो ही जाती है!