कुछ अच्छे में, कुछ अजीब भी था
कुछ अच्छे में, कुछ अजीब भी था ,
धुंधला-धुंधला वो करीब भी था ।
ना फहम हुआ, ना ही याद आया,
ख्वाब था कोई या नसीब भी था ।
एक लौ उठी, तो अन्धेरा जला,
यूँ रहबर मेरा साकीब भी था।
ये दुनिया कभी गैर है, कभी अपनी,
दरारो मे छुपा वो अदीब भी था।
एक जर्ब है मुझे क्यों, ये ना पूछो,
खुदा गवाह है ‘मनी’ गरीब भी था।