कुंवारी मां
इक लड़की थी भोली भाली सी,
सलोनी, सांवली छवि वाली सी,
इक मधुप पुष्प पर बैठ गया,
और दंश प्रेम का भेद गया,
इक ओर प्रेम निश्छल पावन,
इक ओर वस्तु मनबहलावन,
दिन रैन बीते पल वो आया,
उदर बीज प्रेम का मुस्काया,
भीरू तुरंत फिर पलट गया,
कौरा समाज का अटक गया,
पर निर्भया तनिक न घबराई,
ममता में मंद मंद मुस्काई,
वो डट गयी सभी से लड़ने को,
चल पड़ी अबोध संग बढ़ने को,
सिकुड़ी कब उसकी पेशानी,
हार कहां फिर उसने मानी,
दुनिया को कल्कि, उसको आँख का तारा,
ज्यों प्यासे को पानी, त्यों सुत मां को प्यारा,
उस अबोध के लिये कब कलंक शब्द भाता,
मां से पूछो उसको वो प्रणय गौरव यश गाथा |