किस कदर है व्याकुल
किस कदर है व्याकुल
धरा और गगन
मेल हो जाऐ इनका
करो कुछ जतन
तुम निहारो तो सही
गगन की तरफ
कुछ कह रहा है
वो गुनगुनाते हुए
हवाऐ बनी है
पत्रिका प्रेम की
पंछी बने हुए है डाकिए
स्वर छेड़ती
बहती ही जा रही
पर्वतों से निकलती
हुई एक नदी
किस तरह हो मिलन
करो सब जतन
व्याकुल हे धरा और व्याकुल गगन
दोनो बिछडो की तडपन को देखा बहुत
दोनो के अश्रुओ को देखा बहुत
प्रकृति की गोद मे
पर्वतो के परे
एक मनोरम जगह
ढलते सूरज के संग
पंछीयो की उमंग
हल्की हल्की हवा
ले कर खडा है क्षितिज
दोनो के प्रेम की कहानी लिए
दोनो को एक करता हुआ क्षितिज
सुशील मिश्रा (क्षितिज राज)