किस्मत का खेल
दुनिया की आँखें काफी चपल एवं गुप्तचरी होती है|
“यह क्या परभुआ, यहाँ बैठकर समय बिताने के लिए मैं तुम्हे मजदूरी देता हूँ ?” मोहन बाबू की कड़क आवाज से चौंका परभुआ और झट से वहाँ से उठा और जहाँ ईंट की छल्ली लगी थी वहाँ जाकर माथ पर ईंट उठाने लगा। उस समय उसका पूरा शरीर पसीना से तर-बतर था। ईंट माथे पर धरते हुए हाथ थरथराने लगा था। हालाकि उसका हाथ इसके पहले कभी नहीं कांपता था। लेकिन उस दिन थरथरा गया था जैसे शिशिर ऋतु में आई अचानक तेज हवा से पेड़ की पूरी पत्तियां थरथराने लगती है । मोहन बाबू का अभी उसे डांटने से मन नहीं भरा था| उन्होंने काँपते हाथ को देख आगे बोले – “तुमको इसी से कोई काम नही देता है, देह से कमजोर और स्वभाव से कामचोर।”
परभुआ उनकी बात को सुनता रहा और अपने भाग्य को कोसता रहा। इसके सिवा उसके पास दूसरा कोई चारा भी न था। उस दोपहर को गरमी पराकाष्ठा पर थी | धूप मानो आग उगल रही थी। जेठ का आरंभिक महीना था| गरमी से त्राहिमाम की स्थति थी । छत पर ईंट पटककर अभी- अभी नीचे के एक दीवार की छाँव में थोड़ा सा जिराने के लिए परभुआ बैठा ही था कि उसी समय मोहन बाबू अचानक वहाँ आ धमके थे। अच्छा संयोग यही रहा कि इतना बोलकर मोहन बाबु गाड़ी से कहीं चले गए, नहीं तो और बहुत बोलते- भूंकते| परभुआ माथे पर ईंट जल्दी- जल्दी ईंट सरियाया और उसे लेकर छत पर धरने के लिए चला गया।
“परभू, उस समय मालिक गुस्साकर तुमसे क्या बोल रहे थे ?” ईंटा पटककर जैसे ही परभुआ तनकर खडा हुआ सुरजा ने पूछा। परभू को लगा था कि मोहन बाबू की बात न कोई सूना होगा न कोई उनको देखा होगा। वह डाट-डपट हम ही दोनों के बीच रह जाएगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं। परभू को तो लगा था कि सुरजा और सुरीन्दरा छत पर गारा बना रहा है और राम वचन ईंट जोड़ रहा है तब किसी का ध्यान मोहन बाबू के बात पर न रही होगी। परन्तु दुनिया की आँखें काफी चपल एवं गुप्तचरी होती है| सूरजा को मालुम हो ही गया था। पहला तल्ला पर दीवार जोड़ईया का काम चल रहा था उसी में सभी मजदूर काम में व्यस्त थे|
घर के आगे की खाली जमीन पर ईंट रखी थी जिसे परभू छत पर चढ़ा रहा था। ऐसी स्थिति में मालिक का डांट सुरजा सुन गया, कैसे? एक-दो सेकेण्ड तक अपना माथा भिड़ाया फिर सूरजा के प्रश्न का जबाब देते हुए परभू बोला- “अरे, मालिक सब बउराह होता है। उसको क्या पता काम का थकान क्या होता है। बाप-दादा के कमायल धन-दौलत पर ऐश-मौज करता है, दारु पीता है, पान चिबाता है, मटरगस्ती करता है और जब चाहा हमनी गरीब मजदूर पर अपना रोब झाड़ देता है।” खैनी मलते हुए सुरजा परभुआ की बात सुनकर बोला- “ई बात तो तुम हंड्रेड परसेंट सही बोल रहे हो परभु|” उधर करनी को छत पर रखते हुए अपने मुँह में एकत्रित गुटका के थूक को घोंटते हुए राम वचन बोला- “सूरजा, जल्दी मसाला लाओ।” इतना बोलकर राम वचन एक दीवार पर सुस्ताने के लिए बैठ गया| खैनी पर दो-चार थाप देकर एक चुटकी खैनी परभू को दिया,एक चुटकी राम वचन को दिया और एक चुटकी अपने ओठ में दबाते हुए सूरजा मसाला तैयार करने चला गया| परभुआ भी ईंट के अगला खेप लाने के लिए नीचे चल दिया।
उदय प्रताप नारायण सिंह अपने इलाके के धनी-मानी व्यक्ति थे। उनको इलाके में मातवर बाबू के नाम से पुकारते थे। वहाँ के लोग उनपर विश्वास बहुत करते थे। उनका वास्तविक नाम बहुत कम आदमी जानता था। सभी उन्हें मातवर बाबू के नाम से ही जानते थे। पूरे क्षेत्र के सभी लोग उनका बहुत कद्र करते थे। इसलिए नहीं कि वे किसी पर दबाव देते थे, धौंस जमाते थे या किसी के साथ बलजोरी करते थे। वरन इसलिए कि वह बहुत मृदुल स्वभाव के व्यक्ति थे और सभी की मदद करने में हमेशा तत्पर रहते थे। किसी की बच्ची की शादी हो, किसी के यहाँ कोई अनहोनी हो जाए, किसी के यहाँ किसी का पैसे के अभाव में इलाज न हो पाए केवल उन्हें इसकी जानकारी मिल जाए, मातवर बाबू खुद चलकर उसके यहाँ पहुँच जाते थे और उसकी सहायता जहाँ तक हो पाता था, कर देते थे। उनका एक छोटा भाई भी था- तेज नारायण प्रसाद सिंह, तेजो बाबू। अंगरेजी हुकूमत के कट्टर विरोधी। गांधी बाबा के आह्वान पर आयोजित जुलुस, पदयात्रा आदि में बहुत बार तिरंगा लेकर शामिल भी हो चुके थे। एक रात जब किसी क्रांतिकारी मित्र के यहाँ से आ रहे थे तो अंग्रेज के सिपाही ने उन्हें पकड़ लिया। रात भर थाना में रखा और सबेरे-सबेरे लाट साहब को सुपुर्द कर दिया। लाट साहब पूछते रह गए कि तुम रात में कहाँ से आ रहा था? तेजो बाबू उस अंग्रेज अफसर से बिना किसी प्रकार के डर के हमेशा कहते रहे- मैं अपने संबंधी के यहाँ से आ रहा था। आपका सिपाही बेबुनियाद शक के आधार पर पकड़ लिया है और आपके पास भेज दिया है । अंग्रेज हाकिम के सामने सीना तानने का मतलब जेलखाना। इसलिए उस जुर्म में उनको जेल में महीनों सड़ना पड़ा था।
जेल से आने के बाद उनके यहाँ चुपके-चुपके क्रांतिकारियों का मजमा लगाने लगा था। फिर तो तेजो बाबू के लिए जेल घर-द्वार बन गया| आजादी प्राप्ति के बाद उनको स्वतंत्रता सेनानी के रूप में बहुत ख्याति प्राप्त हुई| इलाका से लेकर प्रशासन तक में उनका रुतबा काफी बढ़ गया| लेकिन तेजो बाबू त्यागी स्वभाव के थे| स्वतंत्रता सेनानी को मिलने वाली सभी सुविधाओं को सरकार को यह कहते हुए लौटा दिया कि भारत माता की सेवा तन्खाही सुविधा लेने के लिए नहीं किया था। इससे जिला के कलक्टर आदि भी तेजो बाबू को बहुत सम्मान देने लगे थे| साथ-साथ मातवर बाबू को भी जिले के सारे पदाधिकारी आदर की दृष्टि से देखने लगे थे। तेजो बाबू को देश-सेवा का ऐसा भूत सवार था कि गाँव-घर छोडकर आजादी मिलने के पांच छ: साल के बाद सदा-सदा के लिए भावे बाबा के साथ सर्वोदयी काम करने के लिए पौनार आश्रम, महाराष्ट्र चले गए, फिर लौट कर कभी न आये।
मातवर बाबू उस मल्कियत के अकेला हकदार थे।
अकूत सम्पति,नौकर,चाकर| परन्तु थोड़ा-सा भी गुमान नहीं,थोड़ा सा भी अभिमान नहीं,थोड़ा सा भी दिखावापन नहीं। उन्हें देखकर सभी लोग यही कहते थे- मातवर बाबू सादा जीवन उच्च विचार के जीता जागता आदर्श उदहारण हैं। लेकिन मोहन बाबू के चलते सब गुड़ मिट्टी।
मातवर बाबू की तीन संतानें थी–दो बेटा और एक बेटी। नागों बाबू अविवाहित ही थे जब वे पौनार आश्रम का रास्ता लिया था। मातवर बाबू के बड़े लड़का का नाम सूर्य नारायण सिंह उर्फ संजू भैया था और उनके छोटे लाल का नाम मदन मोहन सिंह था| बेटी का नाम बड़े शौक से तेजस्विनी सिंह रखा था उन्होंने। अपने नाम की सार्थकता साबित करके दिखलाई उनकी बेटी एक आला अफसर बनकर। सूर्य नारायण सिंह को लोग संजू भैया के नाम से पुकारते थे। नारायण बाबू दूरदर्शी व्यक्ति थे, उन्हें आभास था कि अगला समय धन-दौलत का नहीं अपितु शिक्षा का होगा, ज्ञान का होगा, विज्ञान का होगा । धन -दौलत, अमीन्दारी-जमींदारी की अपेक्षा अफसरी को ज्यादा तरजीह दिया जाएगा। इसलिए मातवर बाबू ने मोहन प्रसाद सिंह और सूर्य नारायण सिंह उर्फ संजू भैया दोनों पुत्र को पढ़ने के लिए देहरादून के एक नामी-गिरामी आवासीय विदयालय में नाम लिखवाकर भेज दिए ।
यहाँ एक बड़ा-सा मल्कियत को संभालना उनके लिए आसान न था। दोनों बेटों को पढाने के लिए दूर भेजकर अकेलापन अनुभव करते थे| लेकिन सारी पीड़ा को यह सोचकर सह जाते थे कि दोनों लाल का जीवन संवर जाएगा और बुढापा भी मजे में कटेगा । यही सोचकर नारायण बाबू सारे अकेलापन के गम को अमृत समझकर पी जाते थे।
उस दिन जब आवासीय विद्यालय के प्राचार्य का यहाँ खबर आयी कि मदन मोहन सिंह का चाल-चलन इस शैक्षणिक संस्थान के नियम के प्रतिकूल होता जा रहा है, आप इनको यहाँ से ले जा सकते हैं, तब नारायण बाबू को काफी सदमा लगा। अपने सुपुत्र के चलते अपनी प्रतिष्ठा के अवमूल्यन की बात सोच वे बहुत दुखी हो गए। कुछ दिनों तक उन्हें बिछावन भी पकडना पड़ा था। जब थोड़ा उनका स्वास्थ्य सुधरा तो विद्यालय के हेड से ट्रंक कोल पर बातचीत कर मदन मोहन को विद्यालय में रुकवाने में सफल हुए। वहीं हेड से बातचीत के सिलसिले में पता चला कि संजू भैया अच्छी तरक्की कर रहे हैं। एक से लगे घाव को दूसरे की प्रशंसा का मलहम ने थोड़ा दर्द को हटा-घटा दिया था।
प्रभु दयाल जब मैट्रिक फस्ट डिविजन से पास किया था तब उसके बाप, ईश्वर भगत, को खुशी का पारावार न था। अपनी सारी बिरादरी में उसने मिठाई बंटबाई थी। इसके अलावे राजपुतान के एक टोला,जिसमें मातवर बाबू का घर भी पडता था, में खुद तो मिठाई बांटने न गया था क्योंकि उसके हाथ का छुआ हुआ कोई चीज राजपुतान के लोग नहीं खाते थे तब मिठाई भी कैसे खाते? इसलिए डायरेक्ट हलवाई के यहाँ से ही मातवर बाबू के साथ-साथ उनके टोला में भी मिठाई बंटवाई थी। उस टोला में मिठाई बंटबाने का खास वजह था कि मोहन बाबू के पिता, मतावर बाबू, का बड़ा एहसान था ईश्वर भगत पर। जबतक मातवर बाबू रहे, हर दुःख-सुख में उसको मदद करते रहे। उनके एहसान के नीचे दबा था बेचारा। मिठाई मोहन बाबू क्या उनके परिवार के किसी सदस्य को नहीं सुहाया था| फिरभी मिठाई की तौहीन नहीं की थी किसी ने। बस इतना था कि टोला के लोग जिसने सूना, दांत तले अंगुली दबा ली- ईश्वरबा के बेटा फस्ट डिविजन से मैट्रिक पास किया है !
रिजल्ट आने के बाद से ईश्वर भगत अपने बच्चे, प्रभु दयाल से बहुत उम्मीदें पाल रखा था। पास-पडोस के लोगों से कहता- “देखना, एक दिन प्रभु दयाल हम सब का नाम उजागर करनेवाला बनेगा। पूरा कुल खानदान का नाम रौशन करेगा। किसी तरह कर्जा-पईन्चा करके उसका नाम शहर के एक अच्छा कालेज में इंटर साइंस में लिखवाया गया। एक नई साईकिल पिता ने प्रभु दयाल के रिजल्ट से खुश होकर खरीदा था। न खरीदता तो रोज कालेज जाने का भाड़ा भी तो देना पडता–एक पंथ दो काज| खेती बारी से आमदनी जो होती है उससे तो खाना-दाना चल जाता था, वही बहुत था। बीघा में तो खेती-बारी थी नहीं, कठा-धुर का क्या मुराद?
जैसा कि सभी सोचता है वैसा प्रभू दयाल के पिता ने भी सोचा| अपनी लड़खडाती आर्थिक स्थिति को सुधारने के ख्याल से ईश्वर भगत को एक उपाय सूझी। खेती-बारी के साथ–साथ यदि पशुपालन का भी काम किया जाए तो आम के आम और गुठली के दाम। लगहर रहेगी तो दूध बिकेगा भी और पौआ-सेर जो बचेगा उससे सब्जी का भी काम चलेगा। दूध शरीर को भी लगेगा। बहुत सोच विचारकर ईश्वर भगत एक भैंस खरीदने का मन बनाया। सोचा कर्जा-पईन्चा करके भैंस खरीद लेते हैं। धीरे धीरे सब कर्जा सधा देंगे। नारायण बाबू तो अब रहे नहीं, नहीं तो उनके नजदीक अपना दुःखडा रो-गाकर उनसे बिना सूद के रुपया ले लेता और लौटा देता। फिर एक महाजन मनोहर सिंह, नामी गिरामी सूद पर पैसा देने वाले व्यक्ति, के पास ईश्वर भगत गया और उनसे पाँच हजार रुपया सूद पर लेकर आ गया। एतवार के दिन गोरैया थान मेला में बाप-बेटा दोनों गया और लगहर एक भैंस खरीदकर ले आया।
भैंस कुछ दिन तक दूध देती रही। सब काम ठीक-ठाक चल रहा था। अचानक कुछ महीना बाद भैस को खोरहा रोग हो गया,ईश्वर भगत इधर –उधर से पैसा का ईंतजाम कर अपनी पूरी ताकत झोंक दिया। उसका दवा-दारू करवाया।लेकिन वह भैस को बचाने में सफल न हुए- होईहें वही जो राम रची राखा। उनके घर में रोआ-कानी उसी तरह मचा जैसे मानो………. . फिर एकाध दिन बाद भगवान की मरजी मानकर संतोष कर लिया। कुसंयोगवश उस साल सुखाड के कारण फसल भी ठीक से न हो सका। मनोहर सिंह का साल लग रहा था। उनका आदमी सूद चुकाने का समय देकर चला गया। इधर प्रभु दयाल का कालेज फीस और परीक्षा फीस मिलाकर मोटी रकम हो गयी थी। फसल न होने के कारण खर्चा खोराकी का भी लाले पडने लगे। आफत आता है थोक में और जाता है खुदरा भाव में। ईश्वर भगत के लिए काफी कठिन समय आ गया था। प्रभु को कोलेज की पढ़ाई छोडने की नौबत आ गयी। नौबत क्या आयी,परीक्षा के साथ साथ पढाई भी छोडनी पडी । चिंता ने इस तरह इश्वर भगत पर हाबी हुआ कि उन्हें बिछावन पकडबा दिया। सारा भार अब प्रभु दयाल पर आ गया था। पिता का दवा-दारु,एक छोटी बहन की शादी और बुढी माँ का देखभाल।
मूल धन में सूद को जोड-जोड कर मनोहर सिंह ईश्वर भगत के पांच हजार रुपये कुछ ही वर्षों में बड़ी मोटी रकम बन गयी। दबाव बनाकर महाजन ने उस पैसा के एवज में प्रभु दयाल की सारी जमीन हड़प ली। जमीन हाथ से निकल जाने के बाद मजदूरी के सिवा और कोई रास्ता नहीं बचा था। इस तरह पढ़ा लिखा एक होनहार नवयुवक प्रभु दयाल से परभुआ बन गया।
उसदिन जब मोहन बाबू उसे उलटा सीधा कहे थे तब परभुआ को पुराना दिन याद आ गया था। उसे कोलेज का दो चार दिन की यादों ने भीतर से तोड़ दिया था। उसे मोहन बाबू के डाट-फटकार से ज्यादा किस्मत की बेरुखी साल रहा था। दिल में तो आया था कि मोहन बाबू को उसी समय जबाब दे दें कि अभी भी आपसे ज्यादा पढ़े लिखे हैं। आपके तरह नन मैट्रिक नहीं हैं ।आप की तरह बाप-दादा के कमाई पर गुलछर्रा नहीं उडाता हूँ। लेकिन उसके सामने शाम को मिलने वाली राशि थी। यदि बोल देता तो उसे मजदूरी नहीं मिलती तो रात में क्या खाता और अपने परिवार के अन्य सदस्य को खिलाता? आर्थिक विपन्नता मनुष्य से क्या क्या न करवाती है और क्या क्या न सुनवाती है? जब से चलते घोड़ा को चाबुक देने वाली बात हुई थी तब से परभुआ के दिल दिमाग में आग लग गयी थी- मैं इमानादारी से काम करता हूँ। सुरजा और सुरीन्द्रा मेरे मुकाबले बहुत कम काम करता है फिरभी मोहन बाबू मुझे ही कामचोर कहते हैं। कही और काम खोजूंगा और करूँगा। मन ही मन सोच रखा था कि आज मोहन बाबू को शाम में हिसाब करते समय कह दूंगा – “मालिक, मैं कामचोर हूँ और कमजोर भी। मेरा पूरा हिसाब कर दीजिए, कल से मैं आपके घर काम करने न आउंगा। भूखे मर जाउंगा लेकिन आपको नारुष्ट करने नहीं आऊंगा।”
प्रभु ऐसा सोच ही रहा था कि किसी गाड़ी की हौरन की आवाज सुनायी दी। शाम हो चुका था। काम छोडने का समय हो चुका था। छत पर से उचक कर सुरजा देखा, बोला- मोहन बाबू आ गए। मोहन बाबू की गाड़ी को सुरजा पहचानता था। शायद हौरन की आवाज नौकर को गेट खोलने का आदेश हो। शायद नहीं, सियोर। नौकर दौड़ा-दौड़ा गेट को खोला। गाड़ी अंदर आयी। गाड़ी से उतरते ही मोहन बाबू का पैर डगमगाने लगा था। लडखडाते हुए घर के अंदर आने लगे तभी उनकी धर्मपत्नी, मालती देवी, संभाल कर अंदर ले गयी। मोहन बाबू की चाल देख सुरजा बोला – मालिक तो आज एकदम टर्र होकर आए हैं, एकदम फूल।
बार- बार मदन मोहन सिंह की गलत हरकत के कारण देहरादून से उनका नाम काट कर आठ बरस पहले ही भेज दिया गया था। संजू भैया दिल्ली से डाक्टरी की पढ़ाई करके दिल्ली में ही फ़ौज के डाक्टर की नौकरी करने लगे थे। मदन मोहन सिंह की हरकत से संजू भैया हमेशा चिढे रहते थे। दिल्ली से कम ही बार गाँव आते थे । आयें भी किसलिए? छोटे भाई के चाल- चलन और नाजायज संगी साथियों के फेर में पडकर जो घिनौना हरकत किये जिसे नारायण बाबू बर्दास्त नहीं कर पाए और असामयिक काल-कलवित हो गए ।
मोहन बाबू का खुस्सर राज था। संजू बाबू की उदासीनता के कारण पूरी संपत्ति का अकेला मालिक बन बैठे थे। संजू भैया कभी कभार आते थे तो कुछ सर-सामान मिल जाता था। लेकिन दो चार साल भी संजू भैया न आये तो एक कनमा भी उन्हें कुछ नहीं मिलता था। वो तो गनीमत था कि नारायण बाबू अपने जीते जी एक अति सज्जन और कुलीन लडकी मालती से शादी करवा दिए थे मोहन बाबू का,नहीं तो ——-.
मोहन बाबू को बिछावन पर सुलाकर मालती मालकिन ऊपर छत पर चली गयी काम का मुआयना करने।
लेबर मिस्त्री काम छोड़ चुका था और हाथ पैर धो रहा था। सुरजा अच्छा बोलबईया था। गिरगिट की तरह रंग बदलने में पारंगत था। काम तो कम ही करता था लेकिन बात से पोशिन्दा का मन भरे हुए रखता था। मालकिन को आते देखकर अनजान बनते हुए सुरजा बोला- मालकिन, मालिक तो अभी तक नहीं आये हैं,हमलोगों को कुछ खर्चा खोराकी के लिए —-मि—ल———- जाता—- तो। मालकिन दो सौ रूपया राम वचन को धराते हुए बोली- मालिक के आने और न आने से तुमको क्या काम है? मैं हूँ न । लो दो सौ रुपया खर्चा खोराकी के लिए। कल मालिक से हिसाब करबा देंगे। परभुआ सबसे पीछे खडा था। सोचने लगा – अब मैं किससे कहूँ कि कल से नहीं आउंगा। कल भर आ जाते हैं।
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