किसान
किसान…
वो लगता मुझे पिता जैसा
श्रम करता, पसीना बहाता
सुबह उठकर डट जाता
हर हाल में मुस्काता।
जब फसलों के रूप में
अपनी मेहनत को देखता
तो भूल जाता हर ग़म
बिसरा देता वो लम्हे
जो बच्चों के साथ नहीं बिताए
माता पिता के साथ को तरसे
जाने कितने पल बीते
पत्नी संग बतियाए।
किसान…
अधपके बालों में आज
सड़क किनारे बैठा
अपनी उत्सुक आँखों से
भविष्य को तौलता हुआ।
कभी उत्साहित युवा के रूप में
अपनों को लंगर बांटता
ठिठुरती सर्दी में सोता-जागता
कभी पास बैठे परिवार को
एक सुनहरे भविष्य के सपने देता।
किसान…
क्या उसे इतना भी हक़ नहीं
कि थोड़ी सी खुशियाँ समेट ले
अपनी मेहनतकश ज़िन्दगी में
इंद्रधनुष के कुछ रंग बिखेर ले
दुआओं में उठे हाथ
कि तुम्हारे जीवन में अब
हरियाली ज़रूरी है
दूसरों को खुशियाँ बांँटने वाले
तुम्हारे जीवन में भी
खुशहाली ज़रूरी है।
-अनीला बत्रा पाहवा