किसानों के लिए एक कविता
किसानों के लिए एक कविता
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कैसी विडम्बना है यह
भारत एक विश्व शक्ति बन रहा है
और हमारे किसान
विवश है अपने जीवन को
समाप्त करने के लिए, भूखे प्यासे बेहाल
किसानों की फसलों का मूल्य
उतना भी नहीं मिल पाता, अब उन्हें
कि वो अपना भरण पोषण भी कर सकें
बिचौलिये खा जाते हैं बीच का
अन्न उपजाते हैं ये मेहनती किसान
और मौज उड़ाते हैं,
अन्न का भण्डार जमा किये व्यापारी।
इनकी इस भयंकर व्यथा से अनजान
सरकारों पदों पर अफसर और मंत्री पदों पर बैठे
ऍमएलऐ और एम् पी बढ़ाते जाते हैं
अपने भत्ते और पेंशनें और सुख सुविधाएँ
पर उनके बारे में कहाँ, सोच पाने को वख्त है भाई
जो देशों वर्षों से केवल पांच सौ – हज़ार पेंशन पाते हैं.
सरकारी कर्मचारी अगर, अनशन कर दें,
तो वेतन आयोग, तुरंत लागू हो जाते हैं,
बिना देखे समझे कभी भी, कि दूसरों को भी
मिल क्या रहा है, जीवन यापन के लिए
इन दुखी लाखों करोड़ों किसानों की संतप्त
आत्मा से निकलती, कराह की आवाज
राजनीतिज्ञों के कानों तक पहुँच कर भी
अनसुनी रह जाती है, जाने क्यों किसान भाई,
जब तुम्हारे उनके लिए, आंकड़े दिखा कर ही,
कर ली जाते हैं अपने अपने, कर्त्तव्य की इतिश्री भाई.
किसानों के लिए एक कविता दो खण्डों में – खंड. 01
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जिन अपने किसानों के, नंगे फटे पावों को ,
देश में फूलों पर, रखना –और पूजना था,
जिन किसानों के प्रथम, नगर आगमन पर,
नगर के द्वारों को, नव पुष्पों से सजना था,
उनके आने पर, देश भर की, आंखें भर आई हैं,
सोगए लालबहादुर के साथ, इनके सपने भी भाई।
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जो किसान सदियों से बस, सहता ही आया है,
उसे और अभी, कितनी दिनों सदियों तक,
उपेक्षाओं को यू हीं बस , सहते ही जाना है?
कब होगा नया सबेरा, इन सबके लिए भी?
कब सुखी बन पाएंगे, अपने ही गावों में ये,
कब इनके व्यथित, दुःख भरे जीवन में?
खिल सकेंगे, कुछ नव खुशियों के कुछ पुष्प?
कब तक इन्हें अभी और, यूँ ही भटकना होगा।
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कब तक इनको अपना, सब कुछ खो कर भी,
मौन देखते रह कर, केवल आंसू पीना होगा,
कब तक ये किसान छले जाते रहेंगे हमेशा ही,
देखते रहेंगे बस, मूक बने, हम सब बेबस बस,
कब तक आंसूं पी कर, ये छाले गिनेंगे हर रोज?
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देखो ज़रा कर्ज ले कर, ओ’ भाग जाने वालों,
तुम्हारी करनी से संतृप्त, अपने किसानों को,
कभी नहीं जागती – आत्मा तुम्हारी कभी भी?
कहाँ रखोगे ये सब धन, जब आत्मा भटकेगी,
अपने संग तुम तो, एक सूई न ले, जा पाओगे।
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काश, देश के कर्णधार भी, समझ पाते ये भी,
जन आक्रोश सहना, अब सरल नहीं पहले सा,
इसीलिए गाँधी ने, पहले सुध ली थी, गावों की,
पर कहाँ ? नेता अपने, समझ पाते हैं ये सच भी,
लगे हुए हैं भारत को बस, आधुनिक बनाने में,
नहीं दिखता जो यतार्थ है और कडुवा हो सच है.
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क्यों किसानों के पावों में, पुरे देश भर में ही,
है छालों, बिवाईयों ने है, अपना डेरा ही डाला,
क्यों आत्मदाह खोजता, रोज देश का किसान बेचारा,
क्यों तुम दंड नहीं दे पाते हो, इनके सूदखोरों को,
क्यों बैंक छोड़ देते हैं, बड़े कर्ज के भगोड़ों को,
और बलि चढ़ा देते हैं, छोटे नासमझ किसानों को
मजदूरों को, सामान्य जन को और गरीबों को?
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इन किसानों की बुझती- टूटती उम्मीदों पे,अब है,
मंडराता केवल कर्ज का, या एक ही काला साया,
अभी समय है, बचा लो, इन सब दुखी जनों को,
तभी संवर सकेगा, सच्चे अर्थों में अपना भारत,
कहलायेगा सच में नेक और सच में महान भारत,
वरना लाख तुम चाहे जितना, राम मंदिर बनाओ,
इसका मतलब तुमने, समझा ही नहीं अपने राम को,
लाख करो तुम जतन, इसे आधुनिक बनाने का,
ये रहेगा दुखियारों और गरीब लोगों का ही भारत,
समझा नहीं अगर तुमने, राम की रामायण को.
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इन्हीं फटी एड़ियों से सैकड़ों मील, पैदल चल कर ये,
आये हैं इतने सारे किसान, बूढ़े पुरुष और महीलायें भी,
आये आज, अपनी दुःख, व्यथाओं को हमें समझाने
नहीं जलाया कोई वाहन, नहीं फूंकी कोई बस, ट्रक भी,
रात में भी थके होने पर, चलते रहे ये सारे की सारे,
जिससे बच्चों की परीक्षा में न हो जाय, व्यवधान कोई
पढ़े लिखे नहीं ये, पर इन महाराष्ट्र के किसानों की समझ के
आगे, पूजा की थाली ले नमन करो, ओ’ भारत के वनमाली।
Ravindra K Kapoor
13th March 2018
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