किससे कहूँ ?
किससे कहूँ ?
स्पंदित ह्रदय से निकली इस पीड़ित चेतना को
भावनाओं के कंदराओं में बैठी तीव्र वेदना को
किससे कहूँ ?
आधुनिक समाज के तथाकथित विकास को
हो रहे मानवता के तीव्र ह्रास को
इंसानियत के कलेजे को चीर कर बहाती है लहू
किससे कहूँ I
किससे कहूँ ?
रिश्तों के जड़ों में हो रहे उस कटाव को
मानवता के बीच दुश्मनी पैदा कर रहे उस मन मुटाव को
किससे कहूँ मैं ?
हो रहे माता पिता के कत्ल-ए-आम को
तथा कथित रिश्तों की खुशियों के जाम को
बेबस हूँ मैं करूँ भी क्या परन्तु ये सब कैसे सहूँ
किससे कहूँ I
किससे कहूँ ?
तरक्की के नाम पर हो रहे समाज के पतन को
आंसू बहाते देख संस्कृति के लाचार नयन को
किससे कहूँ ?
सभ्यता के उपर हो रहे ऐसे अत्याचार को
लोगों के निरंतर गिर रहे विचार को
दम घुटता है ऐसे समाज में समझ नहीं आता यहाँ कैसे रहूँ
किससे कहूँ I
किससे कहूँ ?
नवीनीकरण के कारण प्रकृति में मचे घमासान को
वैदिक सभ्यता के ह्रास से हो रहे मानवता के नुकसान को
किससे कहूँ ?
इंसानियत के बदल रहे इस भयानक रूप को
प्रगति के नाम पर गहरे हो रहे इस अंधकूप को
हा ! हैवानियत का रूप ले रही है ये इंसानियत हू ब हू
किससे कहूँ I
किससे कहूँ ?
बालकों के लुप्त हो रहे बचपन को
बड़ों के गायब हो रहे बड़प्पन को
किससे कहूँ ?
लोगों के इस बदलते रहन सहन को
संस्कारो में लग रहे इस बड़े ग्रहण को
निराश हूँ मैं ये देखकर कि ये सब कैसे सहूँ
किससे कहूँ
किससे कहूँ ?
अपने ही सम्मान के लिए जूझती नारी की हताशा को
आधुनिकता के नाम पर हो रहे सरे आम नग्न तमाशा को
किससे कहूँ ?
पाश्चात्य देशों के सभ्यता के पोषण को
अपनों के ही द्वारा हो रहे अपनों के शोषण को
यहाँ प्रतिदिन सभ्यताओं के बह रहे हैं लहू
किससे कहूँ I
किससे कहूँ ?
पतझड़ बन रहे सुन्दर प्रकृति के परिधान को
नवीनीकरण में लुप्त हो रहे लहलहाती फसल गेहूं धान को
किससे कहूँ मैं
नीरस हो रहे आर्यवर्त से आती मिट्टी की सुगंध को
मिटते हुए पड़ोसियों के आपसी प्रेम सम्बन्ध को
कोई तो हो जिसके समक्ष अपनी भावनाएं रखूं
किससे कहूँ ?
काश कोई हो जो समझे मेरे इस आह्वान को
कोई हो जो कुछ कर सके समाज के उत्थान को
कोई हो जो सोचे समाज में कैसे आये शांति
ताकि आ सके मानवता की एक नई क्रांति
उसी के सामने अपनी वेदनाओं को रखूं
उससे कहूँ I