किताब
किताब
अरे हस्ती!किताबें ज्ञान का दीप होती हैं
जिसकी रोशनी में रह रह कर….
इंसानियत खुद के अतीत को पढ़कर….
जान पाता है कुछ खोये हुए अछूत को…
.जिनसे वो अनभिज्ञ हैं…
कि कौन हूँ मै…
अब कौन हूँ…
क्या होउंगा…
मैं ये सब खुराफातें जिदंगी की….
वो पढ़कर किताबें हर छोर की….
समझना चाहता है…
गढ़ना चाहता है….
मगर वो जिजिविषा आज हर इंसानियत की खो गई…..
किताबों को परे कर जिदंगी से…
वो ओनलाइन हो गयी….
इंसानियत का वो तकाजा देखिए जनाब…
खुद को छिटक कर किताबों से आज…
वो एकांत में देख ओनलाइन हो गयी…..
हकीकत का जुनून जो कल किताबों के हुजूम में…
सुगबुगाहट सी दिखाई देती थी…
वो आज खुद अपनों से अलग कर ज्ञान…
वो एकांतर अंतरण ओनलाइन हो गयी….. अफ़सोस आज वो मेरी सब किताबें! खामोशी में….
इस कदर धूल फांकें रहीं हैं…..
किसी के आने के इतंजार में उम्मीद लिए फिर से…
आज पुस्तकालय में किताबें मेरी फड़फड़ा रहीं हैं….
कि कोई आयेगा फिर से मेरा एकांतर वो जो चला गया छोड़ कर भुल से मुझे।
स्वरचित कविता
सुरेखा राठी