किताबे-ज़ीस्त का उन्वान हो तुम
किताबे-ज़ीस्त का उन्वान हो तुम
मुझे लगता है मेरी जान हो तुम
मिरी हर बात का मफ़हूम तुमसे
खुदाया अब मेरी पहचान हो तुम
अगर गीता के हैं कुछ पद्य मुझमें
मुक़म्मल सा मिरा क़ुर’आन हो तुम
है जिस पर ज़िंदगी का लम्स बाँधा
उसी की बह्र हम अरकान हो तुम
नज़ीर नज़र