किताबें बोलती हैं !
किताबें बोलती हैं,
भेद छिपे ये खोलतीं हैं।
सही गलत भी तौलतीं हैं,
किताबें बोलती हैं।
मौन रहती हैं लेकिन,
भीतर राज़ इनके गहरे हैं।
इनको है पता सब,
समाज के जो भी पहरे हैं।
अनुभव है सदियों का,
पन्नो में जिंदा हैं सब किरदार।
संगम ये नदियों का,
इनमे भरा ज्ञान का भंडार।
ये साथी हैं उनका,
जिनका कोई मीत नहीं।
इनसे परे जग में
कोई राग और संगीत नहीं।
ये मौन रहकर भी
जीवन का राग सुनाती हैं।
ये शांत भाव से
मनुष्य को मानुजता सिखाती हैं।
जीवन का सारा ज्ञान,
अपने भीतर समेटे रहती हैं।
पढ़ने वाला जो मिल जाए,
किताबें बोलती हैं।