“ कितने तुम अब बौने बनोगे ?”
डॉ लक्ष्मण झा “परिमल ”
======================
पहले चिठ्ठी लिखते थे
बहुत सी बातें होती थीं
दुख -सुख के बारे में ही
कहानियाँ लिखी जातीं थीं
गुप्त- बातें ,प्रेम- उपराग
लिफाफों में बंद रहता था
पत्र जिनके नाम से होता
उसे ही संदेश मिलता था
अन्तर्देशीय पत्र ,पोस्टकार्ड
हमारे संवादों के प्राण थे
आत्मीयता का बोध था
संबंधों से नहीं अंजान थे
याद है वो मंज़र हमें सब
लंबी कतारें प्रतीक्षा करना
STD बूथ से लेंड लाइन
में लोगों से बातें करना
अपनों से बातें करते थे
सबकी जिज्ञासा रहती थी
पास- पड़ोसी, दोस्त मित्र
सबकी ही आशा रहती थी
आया फिर नया जमाना
यंत्रों का आविष्कार हुआ
हम तो सक्षम बनते गए
नवयुग का पादुर्भाव हुआ
विराटरूप को हमने पाया
विधाओं के हम संचालक हैं
द्रुत गति से चलना सीखा
विश्व विजय के लायक हैं
पर हम कहीं रह गए अधूरे
आत्मीयता से कोसों दूर हुए
संवाद किसी से करते नहीं
ईगो के नशे में हम चूर हुए
मोबाईल टेलीफोन जेबों में है
बातें लोगों से होती नहीं है
सब हैं अपनों में व्यस्त यहाँ
कोई किसी की सुनता नहीं है
कितने तुम अब बौने बनोगे ?
जब अनगिनत हाथ तुम्हारे हैं
अस्त्र -शस्त्र से हो पूरित तुम
सब अपने क्षितिज के ही तारे हैं
=====================
डॉ लक्ष्मण झा “परिमल ”
साउंड हैल्थ क्लीनिक
एस 0 पी 0 कॉलेज रोड
दुमका
झारखण्ड
भारत
08.03.2023