कितना सच अनजाना तुमसे….
कितना सच अनजाना तुमसे,
कितना कुछ अनकहा।
क्या करना कुछ कहकर अब,
रहने दो जो नहीं कहा।
कौन सुखी है इस दुनिया में,
जो दर्द मैं अपना रोऊँ।
बना लूँ दर्द को साथी अपना,
सुकून से संग ले सोऊँ।
बन्दिशों में रहते-रहते,
बन्धनों का आदी हुआ मन।
अब क्या करनी मन की अपने,
मन ही न जब अपना रहा।
सबकी अपनी मर्यादाएँ हैं,
सबकी अपनी नियति है।
मरे बिना स्वर्ग न मिलता,
मिलती किसको सुगति है।
जमावड़ा गमों का दिल में,
बन गयी पीर हिमालय।
गहराता समंदर अश्कों का,
बहने दो जो नहीं बहा।
हुज्जूम उमड़कर यादों का,
मन को क्षणिक बहलाता है।
रख काँधे पर हाथ प्यार से,
रिसते जख्म सहलाता है।
कलपता है मन रहरह कर,
हूक सी दिल में उठती है।
ढूह जीर्ण-शीर्ण यादों का,
ढहने दो जो नहीं ढहा।
औरों की गलती के भी,
लगते आरोप हमीं पर।
साथ न देकर देव हमारा,
बरसाते कोप हमीं पर।
छलक पड़े न पीर नयन से,
घोंट लिए सब आँसू भीतर।
सीकर होंठ सदा अपने,
क्या-क्या हमने नहीं सहा !
सच, कितना सच अनजाना तुमसे…
डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)
“मृगतृषा” से