कितना कुछ अनकहा रह गया,
कितना कुछ अनकहा रह गया,
तुम चले गए खामोशी से,
वह लम्हा मेरे ज़हन में बस गया।
वक्त का सितम देखो,
कल तुम पास थे मेरे ,
जिंदगी रंगीन थी,
बिना कुछ कहे ,
छोड़ कर चले गए इस कदर,
कि जिंदगी गमगीन हो गई ।
कितनी बातें अभी बाकी थी, जो उस काली रात के अंधेरे में दब गई,
जिसकी सुबह अभी तक ना हुई,
तुम कह कर गये थे जल्द आजाऊंगा !
कुछ को जीवन देकर,
पर तुमने तो अपना ही जीवन दे दिया!
मैं इंतजार करती रही, रोती रही,
पर तुम ना लौट के आए।
डॉ माधवी मिश्रा” शुचि”
सुल्तानपुर उत्तरप्रदेश