कितना और सहे नारी ?
कितना और सहे नारी ?
——-———————————————-
हे सृष्टि के स्रष्टा ! बोलो, मौन कहाँ तक रहना है ?
हिंसा की बेदी पर कब तक यूँहीं बलि चढ़ते रहना है?
कब होगा पूर्ण यज्ञ सृजन शांति का ?
कब तक बलि-बेदी पर यूँ हीं राख जमा करते रहना है ?
राखों के बीच दबी चिंगारी आज भड़कने को आतुर है
सत्य,अहिंसा,न्याय, धर्म की मार कहाँ तक सहना है?
कब तक अपमान के आँसुओं का पी समंदर,
जगत् सुता को दु:शासन के दुराचार से लड़ना है ?
कब तक वस्तुमात्र बनकर सहे परिवार को नारी?
कब तक अस्तित्व पाने को, लड़े सकल संसार से नारी?
अंतर्मन में रोती अंतस्तल भिगोती,
व्यथित हृदय एकाकीपन में जब पीड़ा में वह होती !
सुलग रही है आँखों मे हर एक नारी के चिंगारी,
बाहर की आग से बच जाये तो फूँक जाती घर में भी नारी!
नारी जन्म देती है नर को ,नर की शक्ति भी नारी
फिर भी सम्मान से जीने को क्यों मोहताज़ है नारी ?
नर नहीं पिशाच है वो उबाल न आये खून में जिसके देख मणिपुर,काश्मीर और बंगाल में दुर्दशा नारी का !
कहाँ थमेगा जा कर शोषन मानवरूप पिशाचों का
मौन बिछाये कब तक अत्याचार सहन करना होगा?
हे सृष्टि के स्रष्टा ! मत दो भले सम्मान हीरे का, पत्थर की नहीं, इंसान है नारी।
क्यों मसल दी जाती है अपने तन के कोंपल से हीं खिले गुलाबों की भाँति ?
दानवों के वर्चस्व संग्राम में कितना और सहे नारी ?
अंतर्मन की विरह – व्यथा अब और किसे कहे नारी?
* मुक्ता रश्मि *
——————————————————-