…कितना आनंद अकेले में…
कितना आनंद अकेले में…!!
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जब जी चाहे खुल कर हँस ले
रोना चाहे जी भर रोलें,
भोजन मिले तो छक कर खाये
कभी- कभी भूखा सो जाये।
मस्त रहें हर वक्त कभी ना
पडें किसी झमेले में,
कितना आनंद अकेले में।
जीवन का हर चाल परख लें
खुशी या गम सब मन में रख लें,
हर विपदा को हँस कर झेलें
खेल समझ हालात से खेलें,
खुद ही खुद को है समझाते
मिले न हौसला मेले में,
कितना आनंद अकेले में।
अकेला हूँ कोई साथ नहीं है
आपना कोई पास नहीं है,
कठिन राह और विकट है जीवन
अपनों को अर्पण यह तन मन,
अपनों के हित किया जो कुछ भी
हर्ष मिलेगा जीने में
कितना आनंद अकेले में।
जीवन धन जो मिला है जी लें
हर गम को हँस- हँस कर पी ले,
लेकर रंग प्रकृति से उसका
इन्द्रधनुष सा रंग पीरो लें
इस जीवन का मोल समझना
व्यर्थ न जाये रोने में
कितना आनंद अकेले में।
कुछ सपने जो हमसे रुठे
उन सपनों पे अपने छुटे,
पुरे जो वो सपने होते
शायद संग सब अपने होते।
जो अपनों के संग में रहता
दर्द न होता सिने में,
कितना आनंद अकेले में।
©®पं. संजीव शुक्ल”सचिन”
9560335952
उन सभी मित्रों को समर्पित जो अपने अपनों से दूर एकांकी जीवन वसर करने को मजबूर है।
धर्म के हाथों, फर्ज के हाथों।