किंकर्तव्यविमूढ़
एक दिन मैंने ज़िंदगी से पूछा
तुम इतनी निष्ठुर क्यों हो ?
ज़िंदगी बोली यह मेरा कसूर नहीं है ,
मैं तो हालातों के हाथों मजबूर हूँ ,
मैंने हालातो से कहा तुम क्यों
ज़िंदगी को मजबूर करती हो ?
हालातों ने जवाब दिया क्या करूँ ?
यह सब वक्त का किया धरा है ,
मैंने जब वक्त से पूछा क्यों
इस कदर हालातों को परेशान करते हो ?
वक्त ने कहा यह सब कुछ मुझसे
नियति करवाती है ,
मैं उसके हाथों मजबूर हूँ ,
जब मैंने नियति से पूछा तुम क्यों
वक्त को मजबूर बनाती हो ?
नियति बोली मैं क्या करूँ ?
प्रकृति मुझसे यह सब कुछ करवाती है ,
मैंने प्रकृति से प्रश्न किया तुम क्यों
नियति को यह सब करने के लिए बाध्य करती हो ?
प्रकृति ने उत्तर दिया इसमें मेरी कोई गलती नहीं है ,
यह सब मानव का किया धरा है ,
जिसने मेरा दोहन इस कदर किया है ,
कि मैं सुखदायी से दुःखदाई बन कर रह गई हूँ ,
मैं यह सुन किंकर्तव्यविमूढ़ होकर रह गया,
क्योंकि मेरे प्रश्न का उत्तर मुझे अपने में ही मिल गया।