काहे का अभिमान
मात्र दिवस ही चार, दिवस
दो आशाओं का व्यवहार
दो प्रतीक्षा प्राप्ति प्राणी काहे करता अभिमान।।
बचपन खेल खिलौने में बीता
युवा सपनो का संसार ,जवानी हस्ती
मस्ती संसार बिसरा सत्य का ज्ञान
प्राणि काहे करता अभिमान।।
जनम लिया जब संबंध उत्सव का
संसार बढ़ता गया आशाओं का तरुवर
जैसे युग की छाँव।।
स्वार्थ लोभ काम मोह ने जकड़ लिया
भुला कर्म धर्म भगवान प्राणि काहे करता अभिमान।।
जनम लिया मुठ्ठी बांधे जैसे तेरे ही मुठ्ठी संसार हाथ पसारे जाता है कुछ भी रहा नही साथ प्राणि काहे करता अभिमान।।
जाने कितनी ही आशाओं का जनम तेरा आवनी और आकाश पाना खोना जीवन तेरा गया बेकार प्राणि क्यो करता अभिमान।।
युग मे सारे रिश्ते नाते स्वार्थ सिद्ध
के भान ,नही मिला जब तुझसे कुछ
भी दिया संबंध घर से निकार
प्राणि काहे करता अभिमान।।
नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश