काश ! ! !
कुछ बात थी तुझमें
तेरे मधु बोल मन को खींचते थे,
मुग्ध हो कर देखती, व्यक्तित्व तेरा मोहता था-
चाहतों की चाशनी दिल पर चढ़ी थी…
वह प्यार था!
इक खुशनुमा एहसास सा
जिसके नशे में डूबता हर पल नया था
जिन्दगी का…
आँख ख़्वाबों से सजी थीं
साँस शहनाई बनी थी
रात-दिन सब मिल गये थे
चाँद का भंँवरा, धूप के फूल पे मंडरा रहा, रसपान करता,
स्वेच्छा से…
क्षितिज में धरती-गगन जैसे मिले हैं
कल्पना थी यूँ हमारा साथ होगा
जोहती थी बाट कब हम मिल सकेंगे
साथ में दिल खोल कर हम हंँस सकेंगे,
गुनगुने स्पर्श रोमांचित करेंगे
थरथराते-दहकते तन-मन मिलेंगे
आस पर विश्वास था, थी आस्था
सच कह रहे हो तुम कि
हम निश्चित मिलेंगे…
मन प्रफुल्लित था तुम्हारे स्नेहरस से
साथ की उम्मीद से ही तृप्त था मन
सोचकर, कोई कहीं तो है मुझे जो चाहता है
इस धरा पे …
पर कहाँ त्रुटि हो गई?
क्यों राह थोड़ी मुड़ गई?
वह मधुरता खो गयी कुछ होड़ जैसी हो गयी?
दो अहम् टकरा गये
क्यों चोट मन को लग गयी?
अब खुश नहीं तुम और ना मैं ही सुखी…
कोई वज़ह मिलती नहीं,
दुर्भावना दिखती नहीं
शायद मेरे कुछ शब्द दिल में चुभ गये,
मृदु भावनायें जल गयीं जो प्यार का दम भर रही थीं
साथ जीने और मरने की कसम भी ले रही थीं
उम्र भर की…
ग़र भरोसा आपको मुझ पर रहा होता
नहीं कुछ वाक्य इसको तोड़ सकते
प्रेम का रस सोख सकते
यूँ मुझे लगता तुम्हारी भावना कमज़ोर थी
और था वहम,
विश्वास की बेहद कमी थी…
हम चुक गये थे, पीठ अपनी मोड़ ली थी,
प्यार से विश्वास मेरा उठ गया था,
सोचती थी हाय! क्यों हम तुम मिले थे?
साथ मिल कर चल पड़े थे?
जब भरोसा काँच सा था?
टूटता इक बात से था?
क्यों क़सम खायी, प्रीत मन में बसाई ?
यह सही होता, कभी हम तुम न मिलते,
साथ चलने का कौल कोई न लेते,
तुम सुखी रहते और
मैं भी न रोती….