काश हम बेज़ुबां होते
काश हम बेज़ुबान होते।
फिर न तो बदगुमान होते।
और न ही बदजुबान होते।
गर न होता किसी को ,
कुछ भी जताने का हुनर।
तो कहां से होती किसी को,
कुछ भी सुनाने की फ़िकर।
हम मूर्ख न सही ,परन्तु,
कम बुद्धिमान होते।
काश हम बेजुबां होते।
हम खुद गर्ज़ तो होते।
परन्तु नादान होते।
तब ही जान वर होते।
गर न इंसान होते।
न कुछ साथ लाते।
न कल के लिये बचाते।
फिर क्यो किसी का ,
हक छीनते ,साधन जुटाते।
द्वंद फंद से मुक्त प्रान होते।
काश हम बेजुबान होते।
न उम्र का बन्धन ,
न रिश्तों की फ़िक्र,
किसी के लिए क्या किया,
न यह जताने का जिक्र।
न सदियों की दुश्मनी,
न दीर्घतर कोई बन्धन।
बस पल दो पल की
पहचान होते।
काश हम बेजुबां होते।
©*कलम घिसाई*