“काश! हमारे भी पंख होते”
अंबक में सपने लेकर
पार सात समंदर जाते
घूम घाम कर शाम तल
घर वापस आ आते।
सैर करते खूब गगन का
हम भी पक्षी बन जाते
सपनों के इंद्रजाल को
सौ रंगों से भर जाते।
धरती से जब शीश उठाकर
नील अम्बर को देखें
अद्भुत नजारा यादों का
इस अंतर मन में लेके।
कभी सोचते बैठ अकेले
विस्तार व्योम का कितना
आंख बंद कर शून्य को चेतें
भरे राजमहल जितना।
नाप लेते पूरा आसमां
कभी न बैठें होते
भर कर उमंग बाहों में
सौ योजन उड़ते होते।
नये नये सपने रचते
पूरित असंख्य होते
निर्भीक उड़ते खुले नभ में
काश! हमारे भी पंख होते।।
राकेश चौरसिया