काश वहाँ होते मेरे पिता
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क्रोध किया,
ईश्वर पर।
रोया–धोया,
आकाश में भरे शुन्य को
इंगित कर।
ग्लानि से निहारा
अन्दर के मनुष्य को।
उसे समझाने की कोशिश की
किन्तु‚
जब बाँध टुटता है तो
उसे बाँध कर रखना…।
नहीं चाहिए था करना नम।
पर‚आज भी हो जाती हैं
आँखें।
मैं घर के लोगों में,
परिजनों और पुरजनों में
ढ़ूँढ़ता रहा वह छवि।
संघर्ष में एक हौसला।
दुःख में एक कंधा।
दर्द में मरहम।
आसमान में सूरज।
रास्तों पर एक गाईड।
बार–बार आकर
मुझे परेशान किया
अमावस की रातों ने।
सुना था इसलिए
खोजता रहा
तारे के दिनों में
वह एक तारा।
जिद को जिन्दा रखने के लिए
खुशामद।
रूठने के लिए डाँट।
पर‚हवा रहा स्थिर।
किसी ने ईशारा नहीं किया।
करता भी किधर?
मैं स्पर्श करना चाहता था
एक आकार।
जिसमें मेरे खोज का अहसास था।
मैं ‘भाग–भाग’ कर बड़ा होता रहा।
दर्द और दुःख का अहसास
पकड़ता और छोड़ता रहा।
खोजता रहा
कहीं खुश्बु।
मेरे किसी हँसी में
खुश्बु नहीं थी।
क्योंकि मुझे अहसास करके
फूलों ने उतार लिया था।
मैं ढ़ूँढ़ता रहा
नहीं मिला।
मुझे बदमाशियाँ सिखाता।
मना करता
या ढ़ाढ़स बंधाता।
हर जगह से मैं
अपने आपको समेटता रहा।
बस।
वह विशाल वृक्ष होता।
मेरे उपर फैलता।
पर नहीं।
मैं बार–बार मुड़कर देखा किया
काश वहाँ होते मेरे पिता।
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