काश….! तू मौन ही रहता….
तेरे लफ़्ज़ों ने…..
बाँध बना कर….
तब्दील कर दिया मेरे प्यार को……
एक शान्त झील में….!
सिर्फ़ पाँच शब्द बोलकर…..!
काश….
तू मौन ही रहता….
तो शायद संभल जाता…
मेरा प्यार ….।।
था एक वक़्त….
मेरा प्यार इतराता इठलाता….
बिखेर जाता….
अपने ह्रदय के उद्गार……!
हिचकोले लेता मस्त पवन सा….
भर लेता तुझे अपने आगोश में….!
और…
बरस जाता सुधारस बनकर….
इंद्रधनुष के रंगों सा….!
जिसमें सराबोर हो पिघल जाती मैं…..
और हो जाती पानी-पानी…!
बहने लगता मेरा प्यार….
देह के रोम-रोम से…
निर्मल निश्छल झरने सा….!
पर….
तेरे लफ़्ज़ों ने…..
बाँध बना कर….
तब्दील कर दिया मेरे प्यार को……
एक शान्त झील में….!
सिर्फ़ पाँच शब्द बोलकर…..!
काश….
तू मौन ही रहता….
तो शायद संभल जाता…
मेरा प्यार ….।।
एक वक़्त और था….
जब सहम गया था वो….
दुनिया के थपेड़ों से….
स्वार्थी परिन्दों से….!
जा छुपा…
दिल के किसी तहखाने में….!
घायल पड़ा था….
अपने अस्तित्व की तलाश में….
अपने हमदर्द….
हमदम व हमरूप की आस में…..!
तभी…
घनी वादियों को चीरती…..
एक किरण….
तेरे अनुपम स्वरूप में…..
खींच लाई….
उस प्यार को तहखाने से…!
तेरे प्रकाश में डूबकर….
एहसास हुआ…
कि तू वही है…
जिसकी उसे तलाश थी…..!
और…
चला आया खिंचा…..
तेरी उस नन्हीं सी किरण के साथ…..
बिछ गया तेरे कदमों तले….
कर खुद को समर्पित…..!
पर….
तेरे लफ़्ज़ों ने…..
बाँध बना कर….
तब्दील कर दिया मेरे प्यार को……
एक शान्त झील में….!
सिर्फ़ पाँच शब्द बोलकर…..!
काश….
तू मौन ही रहता….
तो शायद संभल जाता…
मेरा प्यार ….।।
एक आज का वक़्त है….
अब लौट गया फिर….
वापस वहीं….
जहाँ से खिंचा चला आया था…
मेरा प्यार….!
हो गया गुम….
उसी तहखाने में….
और…
कर लिया खुद को दफ़न….!
उड़ा दी….
लबों पर बिखरती मुस्कुराहट….
और हँसगुल्लों की चादर….!
बस इसी इन्तज़ार में…
कि कब उघाड़ेगा तू उसे…?
कब तोड़ेगा अपना बनाया हुआ बांध….?
कब करेगा…?
इज़हार अपने प्यार का….
रूहों के दीदार का….!
पता नहीं…
पर…
तेरे लफ़्ज़ों ने…..
बाँध बना कर….
तब्दील कर दिया मेरे प्यार को……
एक शान्त झील में….!
सिर्फ़ पाँच शब्द बोलकर…..!
काश….
तू मौन ही रहता….
तो शायद संभल जाता…
मेरा प्यार ….।।
© डॉ० प्रतिभा ‘माही’