काल के चक्रों ने भी, ऐसे यथार्थ दिखाए हैं।
काल के चक्रों ने भी, ऐसे यथार्थ दिखाए हैं,
कल जो अपने थे, आज वही तो पराये हैं।
जो पोंछते थे कभी, आँखों से बहते हुए अश्रु,
उन्होंने हीं तो आज, ये बवंडर उठाये हैं।
हाँ, मूर्छित हो चुकी, हैं संवेदनाएं मेरी,
छल के ऐसे विषैले-बाण, हृदय में समायें हैं।
मौन का आवरण हीं, उपयुक्ति है मेरी,
क्यूँकि, शब्दों में मेरी बस, कटाक्ष भर आये हैं।
तिरस्कारों से छलनी किया, चरित्र को मेरे,
और, श्वास से सुसज्जित जीवित लाश बनाये हैं।
आस्था से जिस गाँठ को, कभी पूजित किया मैंने,
वो दम्भ में, मेरा हीं सम्मान, निर्वस्त्र कर आये हैं।
शिराओं में रक्तसंचार, नहीं होते अब,
ऐसे वेदनाओं की चीख़ों से, अस्तित्व थर्रायें हैं।
यूँ विकल्पहीनता के रन में, अकेली पड़ी मैं,
कि कृष्णा ने मेरी ढाल बन, सुदर्शन उठाये हैं।