कालाबाजारी (फितरत)
मौत खड़ी है सिर पर आकर,
फिर भी यह कालाबाजारी !!
यह कैसा मानव स्वभाव है,
सबकुछ है फिर भी अभाव है,
संकट का सब पर प्रभाव है !
पर संवेदनाशून्य मानव की,
हरकत रही निरंतर जारी !
फिर भी यह कालाबाजारी !!
कितने ही जी भर कर रोये,
बहुतों ने ही अपने खोये,
कहाँ चैन की नींद हैं सोये?
पर संकट की विकट घड़ी में
नहीं समझ पाए लाचारी,
फिर भी यह कालाबाजारी !!
अंहकार को सभी मिटायें,
स्वाभिमान भी साथ जगायें,
इक दूजे का दर्द बंटायें,
आज दुखी दूसरा है तो,
हो सकता कल तेरी बारी,
फिर भी यह कालाबाजारी !!
चलो जगाओ अब जमीर को,
आज मिटा दो इस लकीर को,
अमर न मानो इस शरीर को !
जगत नियंता के द्वारे पर,
पड़ जायेगी गलती भारी,
फिर भी यह कालाबाजारी !!
– नवीन जोशी ‘नवल’
(स्वरचित एवं मौलिक)