कारवां गुज़र गया…..
कारवां गुज़र गया निशां न बचे
न मेंने दरवाजा खोला न तुम ही आए
समय रेत की मानिंद फिसलता गया
न कारवां रुका न गुजरा वक्त फिर आया
रेत में छिपे कंकर चट्टानों में बदल गए
कभी जो एक मुस्कान से पिघल जाते
वही मन बर्फीले पत्थर बन गए
वक्त का पहिया दौड़ता गया
न राम आए न अहिल्या ने प्राण पाएं
कारवां गुज़र गया निशां न बचे
न मेंने दरवाजा खोला न तुम ही आए
ज़मीं में जो बोए बीज
निकल आई उनमें फलियांँ
मौसम ने करवट बदली
खिलने लगी थी कलियांँ
फिर आँधी ने अपने तीर छोड़े
तेज हवाओं ने बांँध तोड़े
ज़मीं के आँचल में जो पल रहे
वो उसकी गोद में ही सो गए
न फिर बंशीवट में धुन बजी कोई
ज़ख्म के आँगन में फिर एक मीरा रोई
शाखाओं पर बैठे परिंदे कूकते रहे
न राहें आसान हुई न राही किसी राह पर नज़र आए
कारवां गुज़र गया निशां न बचे
न मेंने दरवाजा खोला न तुम ही आए
अंजुरी भर धूप छलकी आँगन में
नपे-तुले कदम रख ढूंढ़ने लगी किनारा
धूप के साथ से
छाँव हुई बेसहारा
प्रेम की चौखट खटखटाती
बिखरती रही गलियां
बिफर पड़ी राहें
गुम हुआ छलिया
पीली थी जो प्रीति
स्याह सी धुंधली हुई
हाशिए पर धकेली गई मंजिलें
नेह-नीर में घुली मासूम मेहंदी से
नहीं सौम्यता ने हाथ रचे
बेगुनाह लम्हों संग फूलों ने
गीत शोक के गाए
कारवां फिर गुज़र गया निशां न बचे
न मेंने दरवाजा खोला और न तुम ही आए
संतोष सोनी “तोषी”
जोधपुर ( राज.)