काया की किताब
ये काया
पुरानी किताब सी है…
पन्ने
पल- पल गल रहे…
डर है
झुर्रियों में बसी कहानियाँ
हो ना जाएं ,जाया कहीं…
समय के
दीपक की लौ में
ये भोज पत्र
निरंतर जल रहे…
इससे पहले
कि पूर्णतः क्षरण हो जाए…
अपने अनुभव की स्याही को
अक्षरों में ढाल दूँ…
आने वाली
पीढी के लिए
छोड़ दूँ वसीयत
अपने हिस्से की
आहुति डाल दूँ…
चाहती हूँ,
‘आज ‘ मिट भी जाए
पर
धारा बहती अविरल रहे…
मेरे वजूद की विरासत
कल रहे…
पन्ने बेशक गल जाएं
जो गल रहे…
पर
‘आज’ का इतिहास
‘कल’ रहे…
‘आज’ का इतिहास
आने वाले ‘कल ‘ रहे…