कायर
जब अन्त किसी का आता है ,
मन विचलित सा हो जाता है ।
हृदय गति , बुद्धि , ताकत ,
कोई भी साथ न देता है ।
मन उथल-पुथल हो जाता है ,
मस्तिष्क शून्य हो जाता है ।
मानव हो कर वह मानव भी ,
फिर मानव रह न जाता है ।
क्या शोभा वैसे वीरों का ?
जो नारी का मान न करता हो ।
किसी बहादुर पत्नी के ,
जूतो से डर जाता हो ।
जो पलते हो जकातो के सहारे ,
किसी के भीख और ऋण के सहारे ।
दिखाते आँख वे भी दिग्विजय को ,
जगाता निन्द से सोये चीता को ।
भय है परंतु क्या करे वह ,
आया अंत है अब क्या करे वह ।
बुद्धि नष्ट उसकी हो चुकी है ,
मृत्यु उसके निकट अब आ चूकी है ।
✍️ समीर कुमार “कन्हैया”