बीतल बरस।
कहै छी
बरस बीत गेलै।
परंच हम बीत गेली हैय।
वोहिना जेना
फलां त मर गेलै।
समसान घाट से आबै हैय।
सोचू न
बरस फेर आ गेलै।
परंच बीतल समयनै आबैय हैय।
सोचूं न
फलां त मर गेलैय।
अब हमर बारी आबैय हैय।
सोचूं न
घमंड में हम जियै।
उम्र बीतल जा रहल हैय।
सोचूं न
सभ के पड़त जायै।
राजा रंक बाभन सोलकन कैंय।
सोचूं न
सभ के पड़त जायै।
रामा ज्ञानी अज्ञानी प्रानी कैंय।
स्वरचित © सर्वाधिकार रचनाकाराधीन
रचनाकार-आचार्य रामानंद मंडल सामाजिक चिंतक सीतामढ़ी।