सड़कों पर ऐसे क्यों चलते?
सड़कों पर ऐसे क्यों चलते?
सड़कों पर ऐसे क्यों चलते, हम बने हुए पागल ?
आंखें मूंदे, फर्राटा भरते, एक हाथ हैंडल, स्टीयरिंग
दूजे में पकड़े फोन, बात करते चलते पूरे रास्ते भर
कभी नजर वीडियो पर , सीट बेल्ट, हेलमेट नदारद
कभी तो बाईक यूं लहराते, करते चलते जैसे सर्कस
सड़कों पर ऐसे क्यों चलते, हम बने हुए पागल ?
क्यों जान हथेली पर ले चलते, यूं हम बने बहादुर!
पदयात्री को झटके देते, औचक मुड़ बिना सिग्नल
बजाते भोपू बिना जरूरत, धड़काते राहगीरों के दिल
प्राणों की रही न चिंता, फिर ट्रैफिक का कैसा डर ?
अच्छा होता यही पराक्रम, दर्शाते जाकर सीमा पर
सड़कों पर ऐसे क्यों चलते, हम बने हुए पागल ?
कभी तो मुख में पान, मसाला, भरकर चलते-चलते
बिन देखे आगे-पीछे, चलती सड़क आप रंग जाते
पीछे चलते राहगीर तब, दुआ अपशब्दों की देते
पथ पर हैं राही और अनेकों, शायद हम भूले रहते
अपनी ही तहजीब, सभ्यता का, ऐसे उपहास उड़ाते
क्यों चलते हां बन कर पागल, सड़कों पर हम ऐसे ?
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–राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता, मौलिक/स्वरचित।