कहां रहेंगे गांव (मुक्तक)
मुक्तक- १
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आधुनिकता की परिभाषा में, कहां रहेंगे गांव।
राम राज्य की चाह निरंतर, ढूंढ रही है ठांव।
गांव नगर की भेंट चढ़ रहे, असमंजस में आज।
व्याकुल मन को कहां मिलेगी, ईश कृपा की छांव।
मुक्तक- २
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बड़े बड़ों का दंभ भी, हो जाता जब चूर।
कालचक्र के सामने, हो जाते मजबूर।
एक एक कर सामने, आते इसके रूप।
खेल नियति का देखिए, होता है अति क्रूर।
मुक्तक- ३
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छा गए बादल गगन में आ गई बरसात।
सोचते ही रह गए हम कह न पाए बात।
जुल्फ की सुन्दर घटाओं का अलौकिक रूप।
मोहता जब मन न रहते वश कहीं जज्बात।
मुक्तक- ४
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बढ़ी ज्यों ज्यों तपन है ग्रीष्म की व्याकुल हुआ तन मन।
झुलसते जा रहे कोमल हरे पत्तों भरे उपवन।
धधकती ग्रीष्म में प्यासी धरा की प्यास बुझ जाए।
लिए रिमझिम फुहारें बारिशों की आ गया सावन।
मुक्तक- ५
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बौछारें छम-छम पानी की बरसाती है।
सावन की ऋतु मन को ठंडक पँहुचाती है।
खूब मचल उठता है मन का प्यासा पाखी।
प्यास मिलन की और अधिक बढ़ती जाती है।
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– सुरेन्द्रपाल वैद्य।
मण्डी (हिमाचल प्रदेश)