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13 Feb 2021 · 1 min read

कहाँ से छेड़ूँ फ़साना , कहाँ तमाम करूँ – ग़ज़ल

कहाँ से छेड़ूँ फ़साना , कहाँ तमाम करूँ

कहाँ से छेड़ूँ फ़साना , कहाँ तमाम करूँ

टूटा था दिल वहां से, या संभला था दिल जहां से

कहाँ से छेड़ूँ फ़साना , कहाँ तमाम करूँ

संवरे थे मेरे सपने वहां से, या बिखरे थे वहां से

कहाँ से छेड़ूँ फ़साना , कहाँ तमाम करूँ

जुड़ी थी यादें वहां से, या टूटे थे रिश्ते जहां से

कहाँ से छेड़ूँ फ़साना , कहाँ तमाम करूँ

जब रोशन हुआ था दिल वहां से, या तनहा हुआ था जहां से

कहाँ से छेड़ूँ फ़साना , कहाँ तमाम करूँ

चंद कदम चले थे वहां से, या जुदा हो गए थे जहां से

कहाँ से छेड़ूँ फ़साना , कहाँ तमाम करूँ

रोशन हुआ था मुहब्बत का कारवाँ वहां से, या बिखरे थे सपने वहां से

कहाँ से छेड़ूँ फ़साना , कहाँ तमाम करूँ

जब पहली बार हम मिले थे वहां से, या अंतिम दीदार हुए थे वहां से

कहाँ से छेड़ूँ फ़साना , कहाँ तमाम करूँ

जब रोशन हुई थी कलम वहां से, या उस खुदा की इनायत का कारवाँ रोशन हुआ वहां से

कहाँ से छेड़ूँ फ़साना , कहाँ तमाम करूँ

कहाँ से छेड़ूँ फ़साना , कहाँ तमाम करूँ

1 Like · 2 Comments · 552 Views
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