कहर उठी उर में
इस मिट्टी में वों सुगन्ध कहाँ अब ?
जब राम कृष्ण बुद्ध की बेला थी
कहते वों देश काल के स्वयं प्राण
भारत माँ बिखर गई जैसी गंगा – सी धार
तृण तरुवर से कुसुम कली अस्पृश्य हुए
लौट आया नव्य गरल व्याल उपदंश के
मनु माना सुवर्ण हम , यथार्थ वों मूक , भृत्य के दीवाने !
आह भरी दीन लगे देखने , कैसे प्रभु भी बिक गए ?
खग की चाह क्यों नहीं मिलती उस रश्मि क्षितिज में ?
इस महाशून्य के किस कण में वों उर्ध्वंग तस्वीर
यह वसन भी नहीं किस पेट को बांधती क्लेश – सी
बढ़ चली ले दौड़ केतन विजय गूँज स्वर बिखरी कहाँ तृषित ?
महफिल के प्याला में बिकती रक्त की बोल बाजार !
नव्य कोमल तन की रौनक मिलती धुंधले वारिद के !
क्या इन्तकाल या रैन सदा दिवा दिवस दूर शून्य में ?
प्लावित लय निस्पन्दन लिप्त कहाँ किस रन्ध्र में ?
शशि भुजंग खल के प्रलय प्रचण्ड के दूकुल
यह गत किस लघु अंश ठठोलती क्यों मृत अन्त्य ?
दो टूक ठठरी अवशेष पड़ा वात वल भी चले किसओर
यह व्रण कहर उठी उर में शय्या भी कहाँ फूलों के शव के शब में ?