कहने को ज़िन्दगी का मेला है
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कहने को ज़िन्दगी का मेला है
भीड़ में हर कोई अकेला है
डर उसे जान जाने का नहीं कुछ
इश्क़ का खेल जो भी खेला है
इश्क़ ने मुश्क़िलें ही पैदा कीं
ये सितम उम्रभर ही झेला है
हिज़्र में नींद थी कहाँ इक पल
रो के हालात को धकेला है
उम्र तन्हाइयों में ही ग़ुज़री
आशिक़ी बे-वज़ह झमेला है
सोचता हूँ कभी कभी तन्हा
ऐ महावीर क्यों ये मेला है