कष्ट भरा गणतंत्र
जिस मिट्टी को सींचा जिसने लहू से
बलिदानी , बचा गये सभ्यता बहु से
नयन – नीर भरी , व्यथित ह्रदय ,
सोच रहा तन मन से
कुछ पल कर लूँ तूझे नमन, गाथा फैला दूँ जन- जन से…
तू राष्ट्रदूत , धरा का सुत , हारा हुआ जन- जन है
नहीं कहीं शोभती शांति, समरसता , चतुर्दिक घिरा आज क्रंदन है
अहा डूब रही कैसी सभ्यता ! घोर संस्कृति का मंदन है
है खडा समाज आज दिवस गणतंत्र है, पुकार रहा तूझको नंदन है…!
स्फूर्ति से उन्नत चिरभास्वर तू
तम व्यपोहन सदृश दिवाकर तू
तप – त्याग- वैभव के पुँज प्रखर तू
समरसता के सौम्य भ्रमर तू !
ह्रदय की वेदनाएँ
चिंतित चेतनाएँ
देख राष्ट्र की दिशाएँ
विष से सेवित हवाएँ
बाध्य करती गरल पीने को….
बेडौल – उल्लसित सरल जीने को…..
अब ठिठुर चुका गणतंत्र है
व्यथित – थका हर तंत्र है
विलासिता, व्यसन, विध्वंस का बहु यंत्र है
जन कहाँ प्रफुल्लित , नहीं कोई स्वतंत्र है |
जीवन की प्रसन्नता लाने को
हर आपदा को भूलाने को
अब बचा क्या है ; तनिक नहीं वीरों ….
बस तूझे याद कर , मन बहलाने को !