कश्मीर
श्वेत धवल गिरि अचल कनक रश्मि का कंबल
पिघल रहा आलिंगन में निर्झर कल कल छल छल
बहर में बहती गाती झेलम पूछ रही कुशल मंगल
पन्नों की मोहताज नही ज़हन में उतरे ये ग़ज़ल
पलक पांवड़े बिछा रही सुर्ख़ चिनार की पत्तियाँ
स्वर्ग बसता है जहां बुला रही वो वादियाँ
सब्ज़ क़ालीन पर नाच रही कच्ची अल्हड़ धूप
सुस्ता रही तरु फुनगियों पर शाम ढले ढलता रूप
डल पर बिछ गई सुनहली चादरें छटा अनूप
टिमटिमाते डोलते शिकारे हैं जुगनू स्वरूप
अडिग खड़ी अगुवाई में देवदार की पंक्तियाँ
स्वर्ग बसता है जहां बुला रही वो वादियाँ
झुरमुट से झांकते सेबों के लाल कपोल
बादाम के बागीचे में झूले कठोर खोल
अखरोट की लकड़ियाँ चौखट से रही बोल
ट्यूलिप की नटखट टोली हँस हँस करे कलोल
हवा को सुरभित कर रही केसर की क्यारियाँ
स्वर्ग बसता है जहां बुला रही वो वादियाँ
पश्मीने की नर्मी सी ज़मीन की ज़ुबान
चुस्कियाँ कहवा की संतूर की तान
घुल रहे घाटी में आरती और अज़ान
कुदरत देखो हो रही कश्मीर पर क़ुर्बान
सूफ़ी संत सुना रहे कितने क़िस्से कहानियाँ
स्वर्ग बसता है जहां बुला रही वो वादियां
ये अवर्णनीय लावण्य ये अतुलनीय सुंदरता
ये गीता संग क़ुरान का सहोदर सा अटूट रिश्ता
फिर फूलों की फसल में उदासी कौन है भरता
स्वर्ग के टुकड़े को है टुकड़े टुकड़े कौन करता
आग लगे इन दंगों को आबाद रहे ये घाटियाँ
स्वर्ग बसता है जहां बुला रही वो वादियां
रेखांकन।रेखा