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12 May 2024 · 1 min read

कल्पित एक भोर पे आस टिकी थी, जिसकी ओस में तरुण कोपल जीवंत हुए।

रात्रि के गहन पहर में, गति श्वासों की मंद हुई,
स्याह नयनों में मेघ थे छाये, आस के मोती स्वच्छंद हुए।
जीवन के इस चंचल छल में, मृत्यु मस्त मलंग हुई,
वो डोर जो संयम से बांधे, गांठों की क्रीडा से दंग हुए।
नियत आगमन भोर का यद्धपि, प्रतीक्षा में लौह भी जंग हुए,
हर क्षण में युग की प्रतीति ऐसी, निःशब्दता की गूंज प्रचंड हुई।
अश्रु निस्तेज हो सूख चुके थे, रुदन भय की भी स्तब्ध हुई,
अन्धकार की लालिमा में, स्वपनों की सृष्टि में विध्वंश हुए।
मृदु हृदय रक्तरंजित तो थे हीं, नए आघात से आभा में द्वंद हुई,
अस्तित्व स्मृतिविहीन हुई यूँ, वेदना की चीखों पर प्रतिबन्ध हुए।
स्नेहिल स्पर्श उदासीन पड़े थे, संचित साहस भी विषाक्त हुई,
कल्पित एक भोर पे आस टिकी थी, जिसकी ओस में तरुण कोपल जीवंत हुए।

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