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30 May 2023 · 1 min read

हे कृतघ्न मानव!

हे मानव! तू कितना कृतघ्न है।
जिस वृक्ष ने तुझे जीवन दिया
तु उसे निर्दयता से काटा जा रहा
तू इतना निर्दय कब हो गया?
जो तुझे सांस देते रहे हैं
तु उसी की जड़ों को काट रहा
जरा सोच तू किन जड़ो को काट रहा?
अरे नासमझ जो तुझे पौषते है
देते तुझे शीतल छाया तपती धूप में
और घोर जाड़े में देते अपनी
टहनियों से गर्माहट खुद जलकर।
रे लोभी इंसान! और क्या चाहिए तुझे?
उस सर्वदाता से बस चंद पैसे
या वह तेरे मार्ग में बाधक बन रहा।
अरे उसके बेचारे के पैर नहीं
नहीं तो क्या वह स्वयं नहीं हट जाता?
सुन बहुत पछताएगा एक दिन
अपने इस असहिष्णु कृत्य पर
और सुन तू उसकी नहीं स्वयं
अपनी जड़े काटने जा रहा है।
अभी भी समय है तु क्या अपनी
भूल को सुधारेगा?

– विष्णु प्रसाद ‘पाँचोटिया’

Language: Hindi
1 Like · 550 Views
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