कवित्त
प्रेम के एक घूंट
दे दो कहीं से….
पाना तुझे, तुझमें ही
सदाव्रत, जीवन तलक….
तेरी छुअन तन में
क्या लहर हो उठती !
कंपन ध्वनि हृदय करता
मैं तो मदहोश पड़ा….
राह के खंडहरो में भांति
ये पगडंडियों में उरग देखा
पर मैं तो दास्य का खेला
हमराही के दुहाई नहीं कोई….
तड़प है तेरे सौम्य वदन कहो
तेरी चेहरे कल्पनाओं-सी भरी
स्त्रीसंसर्ग या पुरुषसंसर्ग पाने को
कोलाहल मची पर अपूर्णता मेरी
इस स्थिति की क्या प्रचंडता है
मिले महफिल के आकर्षण में
दीवानगी बढ़ी ये यौवन की हेरे में
चले कांति किसे कहें भव के मेले में