कविता
बिन कहे मेरा कहा तुम सुन सकोगे?
सुन सको यदि, तो करूँ मैं प्यार तुमसे।
मैं नहीं हूँ चाहती साया सुखों का,
न ही कोई फूल जैसी राह चाहूँ।
हाँ मगर हर इक सफ़र हर रास्ते पर,
मैं तुम्हारे साथ चलना चाहती हूँ।
किन्तु क्या तुम साथ मेरे चल सकोगे ?
चल सको यदि, तो करूँ मैं प्यार तुमसे।।
मै नहीं हूँ माँगती,ज़ेवर, हवेली।
न तुम्हारे कोष पर अधिकार चाहूँ।
हाँ मगर बँधकर तुम्हारी बाजुओं में,
मैं मेरा सब खत्म करना चाहती हूँ।
किन्तु क्या तुम त्याग खुद का कर सकोगे ?
कर सको यदि तो करूँ मैं प्यार तुमसे।।
मैं नहीं हूँ उर्वशी रति रूप वाली
न तुम्हारी देह से बस काम चाहूँ।
हाँ मगर संयोग के अंतिम चरण पर,
भोग मैं भी कामरस का चाहती हूँ।
किंतु क्या तुम तुष्टि मेरी पढ़ सकोगे?
पढ़ सको यदि तो करूँ मैं प्यार तुम से।
मैं नहीं हूँ जानकी या रुक्मणी सी,
न ही तुम में राम अथवा कृष्ण चाहूँ
हाँ मगर सब त्याग, गंगा के किनारे
मैं समाधि साथ लेना चाहती हूँ।
किंतु क्या तुम वश हृदय पर रख सकोगे ?
रख सको यदि, तो करूँ मैं प्यार तुमसे।