#कविता
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■ यारी नहीं केवल दुनियादारी
【प्रणय प्रभात】
सोचा था कि जैसे ही तुम मिले
मैं व्यग्र आदतन उग्र हो जाऊंगा।
तुम्हें खरी-खोटी सुनाते हुए
सदैव सा भुनभुनाऊंगा।
तुम मेरे नीम से कड़वे सच पर
आत्मीयता की चाशनी छिड़कोगे।
अपराध-बोध के साथ ग्लानि जताओगे
और सब सहज हो जाएगा
पहले की तरह एक बार फिर।
अच्छा रहा कि तुम मजबूर रहे
जहां भी, जैसे भी रहे दूर रहे।
भरम की गांठें अनायास खोल गए
बिना कुछ बोले कितना बोल गए।
कि हमारे बीच नहीं रही अब यारी
जो थी उसे कहते हैं दुनियादारी।।
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●