~कविता~
कविता
* नारी *
एक मुस्कुराहट पे सब कुछ हँस कर लुटाती है
बस अपना कहो, सचमुच उसी की हो जाती है।
थोड़ा सा सम्मान दे दो,मानो बिक सी जाती है
कुछ भी मिल जाये, अपने भाग्य पे इठलाती है।
अपनों का दिया दर्द, बखूबी दिल मे छुपाती है
अपने सपने बगैर शिकायत,सीने में छुपाती है।
देख किसी को पीड़ा में, भावना में बह जाती है
अपनो की खातिर, सब चुप चुप सह जाती है।
दिन से रात,रात से दिन,सेवा करती जाती है
माँ,बहन,बेटी,सखी का सजीव पात्र निभाती है।
नाता न हो कोख का,वहाँ भी ममता लुटाती है
चाहत नहीं कुछ पाने की,बस देती ही जाती है।
दूसरों को खुश रखना,अपना उद्देश्य बनाती है
कुछ तो बात है,नारी यूँही नही देवी कहलाती है।
डॉ. किरण पांचाल ( अंकनी )