कविता
माँ
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निकलती है
सबेरे-सबेरे
अकेले-अकेले
ले बुढ़ौती का सहारा
ठेगनी छड़ी
माँ !
पास वाले पार्क में
जहाँ फूलों से बतियाती
तितली और भँवरे होते
खेलती मदमस्त हवा
बाँटती वह
अपना सुख-दुःख,विचार,सुझाव
हल्का करती मन का भारीपन
जिन्दगी का खटर-पटर
घुटघुट
एकांत वातावरण से
रुँधे गले और भीगी पलकों से
अक्सर
माँ एक व्यथा है
माँ एक व्यवस्था है
माँ एक अवस्था है
माँ एक प्रथा है
माँ एक कथा है
घुसती है वह
फूलों की क्यारी में
तोड़ने
श्रद्धा के फूल
मोहक-मनमोहक
सुहावने-लुभावने
ललचावने
चढ़ाने के लिये
चुन-चुन
आस्था को
भूलकर सांसारिक मोह
माँ एक अर्चन है
माँ एक अर्जन है
माँ एक सर्जन है
माँ एक समर्पण है
माँ एक समर्थन है
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ