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2 Sep 2018 · 1 min read

कविता

?रिश्ते?
*************

प्रीत बरसती थी रिश्तों में
अंगारे क्यों धधक रहे हैं ?
बोए हमने फूल यहाँ थे
काँटे फिर क्यों उपज रहे हैं?

संस्कार अब विलुप्त हो गए
माँ -बहनें यहाँ लजाती हैं,
सरे आम लज्जा लुटने पर
अपराधिन ये बन जाती हैं।

माया की मंडी में हमने
सौदागर जीवन बना लिया।
पाखंडी रिश्तों ने देखो
नैतिकता को भुला दिया।

कलयुग की काली आँधी ने
मान-सम्मान सब उड़ा दिया,
जिन मात-पिता ने जन्मा था
निज जीवन से ही हटा दिया।

वृद्धाश्रम में आज खड़े वे
नयनदीप नित जला रहे हैं,
घर-आँगन को तरस रहे उर
रिश्ते बाट निहार रहे हैं।

धूमिल रिश्तों के आँगन में
दूरी कितनी पनप रही है,
नफ़रत ,द्वेष, स्वार्थ में अंधी
मानवता भी धधक रही है।
,
खंडित रिश्तों की वेदी पर
अब पुष्प चढ़ाऊँ मैं कैसे ?
वटवृक्ष तन मुरझा सा गया
रंग जीवन में लाऊँ कैसे ?

डॉ. रजनी अग्रवाल” वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर

Language: Hindi
195 Views
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