कविता
शहर बंद है
आराम का दिन है
छः बाई छः के बाथरूम में
खुली सांसें हैं
आज फिर शहर बंद है
कुछ धमाकों के बीच
सौ मीटर चौड़ा रास्ता भी
जान बचाने को तंग है
एक बियाबान में खड़ा अकेला
सोचता हूँ, देखता हूँ
कोई ऐसा सबूत नज़र नहीं आता
दो इंसान रहे होंगे
आपस में कहते होंगे
दीवाली मुबारक
ईद मुबारक
या फिर सुबह की दस्तक
देता होगा कोई शबद
अवल अल्ला नूर उपाया कुदरत दे सब बंदे
या लगती होगी प्यार में सावन की झड़ी
किसी रास्ते से कांटे हटाने को
मचलती होंगी कुछ उंगलियां
अब शहर बंद नहीं है
बन्द होने लायक कुछ भी नहीं है
न राजा है ना फकीर
न ज़ुल्म न ज़ुल्मकार
ना शोषक है ना शोषित
इस सफर में इतना ही समझा
शहर खुला रखने के लिये
इंसान का होना है खतरनाक
ये है तो शहर बन्द होगा
किसी सहमति के बगैर भी
छः बाई छः के बाथरूम से तंग रहेगा
सौ मीटर चौड़ा रास्ता भी।